Home > National-mudde

Blog / 01 May 2019

(राष्ट्रीय मुद्दे) पंचायती राज - कानून और असलियत (Panchayati Raj: Law and Ground Reality)

image


(राष्ट्रीय मुद्दे) पंचायती राज - कानून और असलियत (Panchayati Raj: Law and Ground Reality)


एंकर (Anchor): कुर्बान अली (पूर्व एडिटर, राज्य सभा टीवी)

अतिथि (Guest): नरेश चंद्र सक्सेना (पूर्व सचिव, योजना आयोग), नूपुर तिवारी (एसोसिएट प्रोफ़ेसर, IIPA)

“सच्चा लोकतंत्र केन्द्र में बैठकर राज्य चलाने वाला नहीं होता, अपितु यह तो गांव के प्रत्येक व्यक्ति के सहयोग से चलता हैं।” -महात्मा गांधी

चर्चा में क्यों?

लोकतंत्र की असल सफलता तब है जब शासन के सभी स्तरों पर जनता की भागीदारी सुनिश्चित हो। इसीलिए पंचायतीराज व्यवस्था लाने के लिए 24 अप्रैल, 1993 को संविधान में 73वां संशोधन किया गया। तब से उस दिन को राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस के तौर पर मनाया जाता है। हाल ही में पंचायती राज मंत्रालय ने 27वां पंचायतीराज दिवस मनाया।

पंचायती राज की जड़ें

ब्रिटिश शासन काल में साल 1882 में लार्ड रिपन ने स्थानीय स्तर पर प्रशासन में लोगों को शामिल करने की कुछ कोशिश की थी। इसके बाद साल 1930 और 1940 में कई प्रांतों में पंचायती राज से जुड़े कानून बनाए गए। गांधी जी आग्रह पर संविधान के राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों के अनुच्छेद 40 में पंचायती राज को जगह दिया गया।

पंचायतीराज को क़ानूनी जामा कब पहनाया गया?

संसद द्वारा 73वां तथा 74वां संविधान संशोधन 1992 में किया गया। संविधान का 73वां संशोधन अधिनियम 25 अप्रैल, 1993 से तथा 74वां संशोधन अधिनियम 1 जून, 1993 से लागू हुआ। 73वें संविधान संशोधन के ज़रिए पंचायती राज और 74वें संविधान संशोधन के ज़रिए नगर पालिकाओं को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया।

बलवंत राय मेहता समिति

भारत में सामुदायिक विकास कार्यक्रम की शुरुआत 1952 में की गई। लेकिन, आम जनता इस कार्यक्रम से सीधे तौर पर जुड़ नहीं पाई। इसी समस्या के निदान के लिए बलवंत राय मेहता की अध्यक्षता में 1957 में एक समिति गठित की गई। और इस समिति ने अपनी रिपोर्ट में लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण के लिए त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था की वकालत की। राष्ट्रीय विकास परिषद ने भी इस समिति की सिफारिशों को सही माना।

बलवंत राय मेहता समिति की सिफारिशों के आधार पर सर्वप्रथम आंध्र प्रदेश ने अपने यहाँ कुछ क्षेत्रों में लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण को लागू किया गया। इसकी सफलता देखकर सबसे पहले राजस्थान राज्य ने 2 अक्टूबर, 1959 को अपने यहाँ नागौर जिले में पंचायतीराज की औपचारिक शुरुआत की। उसके बाद दूसरे राज्यों ने भी पंचायती राज व्यवस्था को लागू किया। लेकिन इस प्रयास को उतनी सफलता नहीं मिली जितनी आशा की गई थी।

अशोक मेहता समिति

बाद में पंचायती राज को और अधिक बेहतर बनाने के लिए 1977 में अशोक मेहता समिति गठित की गई। इस समिति ने पंचायती राज को द्विस्तरीय बनाने का सुझाव दिया। लेकिन इस समिति की सिफारिशों को देश में उस वक़्त चल रहे राजनीतिक अस्थिरता के कारण लागू नहीं किया जा सका।

जी.वी.के. राव समिति

योजना आयोग ने साल 1985 में ‘ग्रामीण विकास और निर्धनता उन्मूलन कार्यक्रमों के लिए प्रशासनिक प्रबंध’ विषय पर जी।वी।के। राव की अध्यक्षता में एक समिति गठित की। इस समिति का मानना था कि विकास प्रक्रिया का धीरे-धीरे नौकरशाहीकरण हो गया है जिससे पंचायती राज प्रणाली के विकास में बाधा पड़ी है।

एल.एम. सिंघवी समिति

ग्रामीण विकास मंत्रालय ने एल.एम. सिंघवी की अध्यक्षता में 1986 में एक और समिति का गठन किया । इसका उद्देश्य पंचायती राज व्यवस्था की जांच करना था। इस समिति ने पंचायती राज को संवैधानिक दर्जा देने की सिफारिश की।

बहरहाल इसी क्रम में, कुछ असफल प्रयासों के बाद संसद ने संविधान के 73वें संशोधन ज़रिए पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता दे दी। संविधान में भाग IX को जोड़ा गया जिसका शीर्षक ‘पंचायत’ रखा गया। इसमें अनुच्छेद 243 से अनुच्छेद 243O तक में कई प्रावधान किए गए। इसके अलावा संविधान में ग्यारहवीं अनुसूची भी जोड़ी गई। इसमें पंचायतों के काम के लिए 29 मद हैं और जिसका ज़िक्र अनुच्छेद 243जी में किया गया है।

73वें संविधान संशोधन अधिनियम की विशेषताएँ

तीन स्तरीय प्रणाली: अधिनियम में प्रत्येक राज्य में तीन स्तरीय प्रणाली का प्रावधान है- अर्थात ग्राम मध्यवर्ती और जिला स्तर पर पंचायत प्रणाली।

ग्रामसभा: अधिनियम के तहत पंचायती राज प्रणाली के आधार के रूप में ग्रामसभा का प्रावधान है। इस प्रकार ग्रामसभा गाँवों का एक संगठन है जिसमें किसी पंचायत क्षेत्र के सभी पंजीकृत मतदाता शामिल होते हैं।

अध्यक्ष और सदस्यों का चुनाव: पंचायतों में ग्राम, मध्यवर्ती और जिला स्तर की पंचायतों के लिए सभी सदस्यों का चुनाव सीधे जनता द्वारा किया जाएगा। मध्यवर्ती और जिला स्तर की पंचायतों के अध्यक्ष का चुनाव अप्रत्यक्ष तौर पर पंचायतों के चुने हुए सदस्यों द्वारा किया जाएगा।

सीटों का आरक्षण: अधिनियम में यह प्रावधान भी है कि पंचायत क्षेत्र की कुल आबादी में अनुसूचित जाति की आबादी के अनुपात में प्रत्येक स्तर की पंचायत इन वर्गों के लिए स्थान आरक्षित रखेगी। इसके अलावा राज्य के विधान में ग्राम पंचायत या किसी स्तर की पंचायत के अध्यक्ष पद के आरक्षण का प्रावधान भी होगा।

अधिनियम में किसी पंचायत में स्थानों की कुल संख्या के कम से कम एक-तिहाई स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित रखने का भी प्रावधान है। इस आरक्षण में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति वर्ग की महिलाओं के लिए आरक्षित स्थान भी शामिल किये जाएँगे। कुछ राज्यों (बिहार, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड) में महिलाओं के लिए पचास प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान लागू है।

पंचायतों का कार्यकाल: अधिनियम में प्रत्येक स्तर की पंचायत के लिए पाँच वर्ष के कार्यकाल का प्रावधान है। लेकिन, कार्यकाल से पहले भी इसे भंग किया जा सकता है। पंचायत गठित करने के लिए नए चुनाव पंचायत के पाँच साल के कार्यकाल की अवधि की समाप्ति से पहले या पंचायत भंग होने की तिथि से 6 महीने के अंदर करा लिए जाएँगे।

  • पंचायत में चुनाव लड़ने की न्यूनतम आयु सीमा 21 साल है।

राज्य चुनाव आयोग की भूमिका: पंचायतों के सभी चुनावों के आयोजन करने की शक्ति राज्य चुनाव आयोग के पास होता है।

शक्तियाँ और कार्य: राज्य के विधानमंडल द्वारा पंचायतों को ऐसी शक्तियाँ और अधिकार दिए जा सकते है जो स्वशासन की संस्था के रूप में कार्य करने के लिए ज़रूरी हों।

पंचायत के लिए पैसा कहाँ से आएगा: 73वें संविधान संशोधन के तहत ग्राम पंचायत को कुछ कर लगाने की शक्तियां दी गई हैं। साथ ही, राज्य की समेकित निधि से पंचायतों को सहायता अनुदान का भी प्रावधान किया जा सकता है। राज्य का राज्यपाल पंचायतों की वित्तीय स्थिति की समीक्षा के लिए हर पाँच साल पर राज्य वित्त आयोग का गठन करता है।

इसके अलावा केंद्रीय वित्त आयुक्त भी राज्य में पंचायतों को संसाधनों की पूर्ति के लिए राज्य की समेकित निधि में वृद्धि करने हेतु आवश्यक उपाय से जुड़े सलाह देता है। लेकिन वो ऐसा तभी करेगा जब राज्य वित्त आयोग इस सम्बन्ध में सिफारिश करता है।

कुछ ऐसे क्षेत्र जहाँ ये अधिनियम नहीं लागू होगा: इस अधिनियम के प्रावधान जम्मू-कश्मीर, नागालैंड, मेघालय और मिजोरम राज्य में तथा कुछ अन्य क्षेत्रों में लागू नहीं होंगे।

क्या दिक्कतें हैं पंचायती राज के साथ

पंचायती राज व्यवस्था को उतनी सफलता नहीं मिल पायी, जितनी आशा की गई थी। इसके कारण हैं-

धन की कमी: पंचायती राज संस्थाओं में धन की कमी होना, जिसके लिए वह पूरी तरह राज्य सरकारों पर निर्भर थी। इस दिक्कत ने पूरे प्रयास को असफल बना दिया।

पदाधिकारियों के बीच आपसी वैमनस्यता: पंचायती राज संस्थाओं के सदस्यों के बीच कार्यों को लेकर बड़ी भिन्नता है और एक-दूसरे को दोषारोपण करना आम बात बन गई है। संस्थाओं के वरिष्ठ तथा कनिष्ठ पदाधिकारियों के बीच भी आंतरिक मतभेद बने रहते हैं।

पंचायती व्यवस्था में अनावश्यक राजनितिक हस्तक्षेप: स्थानीय विधायक और सांसदों, साथ ही, समाज के उच्च वर्ग मसलन जमींदारों और ऊँचे तबके के लोगों के कब्जे में आकर पंचायती राज व्यवस्था ने अपना वज़ूद ही खो दिया।

साक्षरता और राजनीतिक जागरूकता की कमी: गांवों में निरक्षरों की भरमार और राजनीतिक जागरूकता की कमी के चलते पंचायती राज का असल मक़सद पूरा होता नहीं दिख रहा है।

इसके अलावा पंचायत के प्रतिनिधियों का अपने पंचायत के विकास के प्रति जवाबदेही नहीं तय की गई है।

पंचायती राज में महिलाओं की स्थिति

पंचायती राजव्यवस्था में महिलाओं के राजनीतिक सशक्तिकरण को प्रभावकारी तरीके से हासिल किया गया है। विश्व की तुलना में भारत में सर्वाधिक महिलाएं स्थानीय निकायों में चुनी गई हैं। वैसे तो संविधान ने पंचायत व्यवस्था में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत के आरक्षण की व्यवस्था की है। लेकिन, महिलाओं का प्रतिनिधित्व क़रीब 50 प्रतिशत तक बढ़ा है। लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त बताती है कि किसी ग्राम सभा की बैठकों में पुरुषों के मुक़ाबले आम महिलाओं की भागीदारी बेहद कम होती है।

पंचायती राज व्यवस्था को बेहतर बनाने के लिए सुझाव

पंचायती राज संस्थाओं को कर लगाने के कुछ व्यापक अधिकार दिए जाने चाहिए। पंचायती राज संस्थाएं खुद अपने वित्तीय साधनों में वृद्धि करें। इसके अलावा 14वें वित्त आयोग ने पंचायतों को वित्त आवंटन में जबरदस्त बढ़ोत्तरी की है। इस दिशा में और भी बेहतर क़दम बढ़ाये जाने की ज़रुरत है।

  • पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव तय समय पर कराये जाएं।
  • पंचायती राज संस्थाओं को और अधिक कार्यपालिका अधिकार दिए जाएं। और साथ ही समय समय पर विश्वसनीय लेखा परीक्षा कराया जाय।
  • पंचायत के नियम-काम को आसान और पारदर्शी बनाया जाय ताकि आम आदमी इसे आसानी से समझ सके।
  • पंचायती राज संस्थाओं के काम में राजनीतिक दलों का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए।
  • पंचायतों का उनके प्रदर्शन के आधार पर रैंकिंग किया जाय और उसी के अनुसार उन्हें धन आवंटित किया जाय।